'...गांव में अब गांव नजर नहीं आता
ना पहले सा भाइचारा रहा, ना तहजीब, ना दरियादिली
आढ़तियों और बैंकों के यहां गिरवी पड़ी है तथाकथित खुशहाली
साधनों की चकाचौंध नहीं, सादगी भरा गांव चाहते हैं गांव वाले
प्रधानमंत्री के कथन कि देश बनाना है तो गांव बनाना होगा पर गांव वालों ने रखी राय
गुरविन्दर मितवा
गांव में भोर अब मुर्गे की बांग से नहीं होती। ना ही अब सुबह सवेरे हाथों से दूध बिलोने वाली मधानियों की घूं-घूं का मीठा संगीत सुनाई देता है। बैलों के गले में बंधी घंटियों की खनकार भी अब गांव की सुबह का हिस्सा नहीं हैं। पुराने लोगों के साथ पुराना दौर भी चला गया। शायर कंवर कसौरिया अपनी निराशा का इजहार करते हैं कि गांव में अब गांव नजर नहीं आता। खेती के आधुनिक साजोसामान के साथ साथ टीवी, फ्रिज, मोबाइल, मोटर साइकिल, कारें, एसी सब आ गए, लेकिन गांव की सुख शांति खतम हो गई है। सारी खुशहाली आढ़तियों और बैंकों के यहां गिरवी पड़ी है। गांव की पहचान कही जाने जाने वाली पगडंडियां, गलियां, चौपालें, हुक्के, सांग, जमातें, तमाशे, कुएं, बावडिय़ां, मेले, सादगी, साफगोई, तहजीब, शराफत, बहादुरी, दरियादिली, भाईचारा, कद्रें, कीमतें, शर्म, लिहाज सब जाने कहां गुम हो गए हैं।
बात दरअसल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 15 अगस्त के भाषण को लेकर चली थी। लाल किले की फसील से अपने पहले भाषण में प्रधानमंत्री ने कहा था कि देश बनाना है तो गांव बनाना होगा। कैसा गांव बनाना चाहते हैं मोदी, ये तो उन्होंने नहीं बताया लेकिन गांव वाले कैसा गांव बनता देखना चाहते हैं, इस सवाल का जवाब टटोलने के लिए खरकां रोड के गांवों का रूख किया तो पहली मुलाकात गांव कसौर में कंवर कसौरिया से हो गई। वे कहते हैं कि बहुत कुछ छिन गया तरक्की के नाम पर। ऐसी तरक्की और नहीं चाहिए। हरियाणा का पुराना गांव आत्म निर्भर होता था। तरक्की ने उसे कर्जदार बना दिया है। कंवर जज्बाती होने लगते हैं। वे अपनी एक नज्म की कुछ लाइनें सुनाते हैं कि आज फिर निकल पड़ा है मेरा गांव, नंगे पांव, ढूंढने पगडंडियां, शायद मिल जाएं कहीं, सड़कें तो अब चुभने सी लगी हैं।
गांव मस्तगढ़ के बुजुर्ग लखविंद्र सिंह को भी पुराने दिनों का बड़ा मलाल है। वे कहते हैं कि नए दौर ने सिर्फ गांव के आदमी को ही नहीं बदला, हवा पानी पर भी असर छोड़ा है। यहां वहां खड़े ढाक के पेड़ों पर मुहावरे के फिर वही तीन पात तो दिखते हैं पर उन पर लगने वाले टेसू के फूल बरसों से नहीं देखे। कैर के एक दो पेड़ बचे हैं सड़क के किनारे, किंतु अब उस पर लाल मीठे पिंजू नहीं लगते। जाअल के पेड़ पर अब पील नहीं लगती। रामचना, चिब्बड़ और बंबोले कभी खूब खाए जाने वाले लाजवाब फल हुआ करते थे, आज की पीढ़ी को नहीं मालूम। लखविंद्र सिंह कहते हैं कि तरक्की की चाहत में फसलों में हर साल टनों के हिसाब से गिरने वाले कीटनाशकों ने कुदरती सिस्टम का बेड़ा गर्क करके रख दिया है। कैमरी, कैंदू, सिरस, फ्रांस, संभालू और मरोड़ सहित सैकड़ों भांति के पेड़ पौधे गुहला के इलाके से तो लगभग लुप्त हो गए हैं।
गांव नंदगढ़ के प्रकृति प्रेमी किसान कश्मीर सिंह को तरक्की तो अच्छी लगती है पर इसके लिए जो रास्ता चुना गया है वह उन्हें बुरा लगता है। वे कहते हैं कि हरित क्रांति के बाद तेज रफ्तार से खेतों में पडऩे शुरू हुए कीटनाशकों व खादों से उपज तो बेशक बढ़ी, लेकिन इसकी ऐवज में सैकड़ों तरह के जीव, जंतु, कीट, पतंगे व पक्षी खतम हो गए।
खेतों में कुदरती तौर पर जुताई करने वाले केंचुएं अब नहीं बचे हैं। बच्चों को बहलाने वाला छोटा सा जीव 'फेल पासÓ दो तीन दशकों से नहीं देखा। राम का घोड़ा, तीज, पोथ, भंभीरी, कोतरी, घोघड़, गिद्ध, चील, गो, सपसीण, सेह, मुरगाबी, बत्तख, घेरा आदि सब तरक्की ने लील लिए। कश्मीर सिंह कहते हैं कि गांव को साधनों संसाधनों की चकाचौंध वाला गांव नहीं चाहिए। मोदी दे सकें तो 30 साल पहले वाला गांव दे दें। खेती व जीने की तमाम तरह की सुविधाएं तो हों पर कुदरत का साथ भी साथ हो।
ना पहले सा भाइचारा रहा, ना तहजीब, ना दरियादिली
आढ़तियों और बैंकों के यहां गिरवी पड़ी है तथाकथित खुशहाली
साधनों की चकाचौंध नहीं, सादगी भरा गांव चाहते हैं गांव वाले
प्रधानमंत्री के कथन कि देश बनाना है तो गांव बनाना होगा पर गांव वालों ने रखी राय
गुरविन्दर मितवा
गांव में भोर अब मुर्गे की बांग से नहीं होती। ना ही अब सुबह सवेरे हाथों से दूध बिलोने वाली मधानियों की घूं-घूं का मीठा संगीत सुनाई देता है। बैलों के गले में बंधी घंटियों की खनकार भी अब गांव की सुबह का हिस्सा नहीं हैं। पुराने लोगों के साथ पुराना दौर भी चला गया। शायर कंवर कसौरिया अपनी निराशा का इजहार करते हैं कि गांव में अब गांव नजर नहीं आता। खेती के आधुनिक साजोसामान के साथ साथ टीवी, फ्रिज, मोबाइल, मोटर साइकिल, कारें, एसी सब आ गए, लेकिन गांव की सुख शांति खतम हो गई है। सारी खुशहाली आढ़तियों और बैंकों के यहां गिरवी पड़ी है। गांव की पहचान कही जाने जाने वाली पगडंडियां, गलियां, चौपालें, हुक्के, सांग, जमातें, तमाशे, कुएं, बावडिय़ां, मेले, सादगी, साफगोई, तहजीब, शराफत, बहादुरी, दरियादिली, भाईचारा, कद्रें, कीमतें, शर्म, लिहाज सब जाने कहां गुम हो गए हैं।
बात दरअसल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 15 अगस्त के भाषण को लेकर चली थी। लाल किले की फसील से अपने पहले भाषण में प्रधानमंत्री ने कहा था कि देश बनाना है तो गांव बनाना होगा। कैसा गांव बनाना चाहते हैं मोदी, ये तो उन्होंने नहीं बताया लेकिन गांव वाले कैसा गांव बनता देखना चाहते हैं, इस सवाल का जवाब टटोलने के लिए खरकां रोड के गांवों का रूख किया तो पहली मुलाकात गांव कसौर में कंवर कसौरिया से हो गई। वे कहते हैं कि बहुत कुछ छिन गया तरक्की के नाम पर। ऐसी तरक्की और नहीं चाहिए। हरियाणा का पुराना गांव आत्म निर्भर होता था। तरक्की ने उसे कर्जदार बना दिया है। कंवर जज्बाती होने लगते हैं। वे अपनी एक नज्म की कुछ लाइनें सुनाते हैं कि आज फिर निकल पड़ा है मेरा गांव, नंगे पांव, ढूंढने पगडंडियां, शायद मिल जाएं कहीं, सड़कें तो अब चुभने सी लगी हैं।
गांव मस्तगढ़ के बुजुर्ग लखविंद्र सिंह को भी पुराने दिनों का बड़ा मलाल है। वे कहते हैं कि नए दौर ने सिर्फ गांव के आदमी को ही नहीं बदला, हवा पानी पर भी असर छोड़ा है। यहां वहां खड़े ढाक के पेड़ों पर मुहावरे के फिर वही तीन पात तो दिखते हैं पर उन पर लगने वाले टेसू के फूल बरसों से नहीं देखे। कैर के एक दो पेड़ बचे हैं सड़क के किनारे, किंतु अब उस पर लाल मीठे पिंजू नहीं लगते। जाअल के पेड़ पर अब पील नहीं लगती। रामचना, चिब्बड़ और बंबोले कभी खूब खाए जाने वाले लाजवाब फल हुआ करते थे, आज की पीढ़ी को नहीं मालूम। लखविंद्र सिंह कहते हैं कि तरक्की की चाहत में फसलों में हर साल टनों के हिसाब से गिरने वाले कीटनाशकों ने कुदरती सिस्टम का बेड़ा गर्क करके रख दिया है। कैमरी, कैंदू, सिरस, फ्रांस, संभालू और मरोड़ सहित सैकड़ों भांति के पेड़ पौधे गुहला के इलाके से तो लगभग लुप्त हो गए हैं।
गांव नंदगढ़ के प्रकृति प्रेमी किसान कश्मीर सिंह को तरक्की तो अच्छी लगती है पर इसके लिए जो रास्ता चुना गया है वह उन्हें बुरा लगता है। वे कहते हैं कि हरित क्रांति के बाद तेज रफ्तार से खेतों में पडऩे शुरू हुए कीटनाशकों व खादों से उपज तो बेशक बढ़ी, लेकिन इसकी ऐवज में सैकड़ों तरह के जीव, जंतु, कीट, पतंगे व पक्षी खतम हो गए।
खेतों में कुदरती तौर पर जुताई करने वाले केंचुएं अब नहीं बचे हैं। बच्चों को बहलाने वाला छोटा सा जीव 'फेल पासÓ दो तीन दशकों से नहीं देखा। राम का घोड़ा, तीज, पोथ, भंभीरी, कोतरी, घोघड़, गिद्ध, चील, गो, सपसीण, सेह, मुरगाबी, बत्तख, घेरा आदि सब तरक्की ने लील लिए। कश्मीर सिंह कहते हैं कि गांव को साधनों संसाधनों की चकाचौंध वाला गांव नहीं चाहिए। मोदी दे सकें तो 30 साल पहले वाला गांव दे दें। खेती व जीने की तमाम तरह की सुविधाएं तो हों पर कुदरत का साथ भी साथ हो।