जान से भी महंगा हो गया है इलाज
खांसी जुकाम का इलाज भी है गरीब आदमी के बूते से बाहर
लोक बीमार है तो कैसे स्वस्थ होगा लोकतंत्र
----गुरविन्दर मितवा
गांव अगौन्ध के प्रकाश को गुजरे छह महीने गुजर गए। एक पलंबर के पास हेल्परी करके सौ दो सौ रुपए दिहाड़ी कमाने वाले प्रकाश को एक दिन छाती में दर्द हुआ था। चीका के एक डॉक्टर को दिखाया। कुछ चेकअप हुए तो पता चला कि प्रकाश को दिल की एक गंभीर बीमारी है। डॉक्टर ने एक बड़े अस्पताल का नाम पर्ची पर लिखकर थमा दिया और ताकीद भी कर दी कि जल्दी आप्रेशन करवा लो वरना कभी भी जान पर बन सकती है। आप्रेशन कहां से होना था जो थोड़ी बहुत पूंजी पेट काट काटकर जोड़ी थी, टेस्टों पर खर्च हो गई। काम छूट गया और बिगड़ती हालत ने चारपाई पकडऩे पर मजबूर कर दिया। खबर पाकर गांव के कुछ नौजवान आगे आए। पहले नेताओं के दरवाजे खटखटाए गए जब आश्वासनों के अलावा और कुछ ना मिला तो नौजवानों ने चंदा करना शुरू कर दिया। कुछ ही दिनों में आप्रेशन के लिए चार लाख रुपए जमा भी हो गए लेकिन तब तक बीमारी इलाज की हदों से दूर निकल गई थी। आप्रेशन हुआ लेकिन प्रकाश की जान नहीं बच पाई।
गांव मस्तगढ़ के सुलक्खन सिंह को शुगर की बीमारी थी। शुगर इतनी बढ़ी की गुर्दों को ले बैठी। पटियाला से शुरू हुआ इलाज का सिलसिला गुडग़ांव के एक बड़े निजी अस्पताल तक जा पहुंचा। बीवी का गुर्दा ट्रांसप्लांट करवाकर सुलक्खन सिंह की जान तो बच गई मगर एक साल का ये इलाज पीढिय़ों से चली आ रही दो करोड़ रुपए की जमीन को निगल गया।
हर गांव, हर शहर के हर गली मुहल्ले में इस तरह की ढेरों कहानियां बिखरी पड़ी हैं। इलाज महंगा हो गया है। इतना महंगा, कि इलाज के सामने जान कई बार सस्ती जान पड़ती है। जिन घरों में दाल रोटी ही सबसे बड़ा मसला हो, उनके लिए तो खांसी जुकाम की दवाई ही अक्सर बूते से बाहर की बात हो जाती है। और अगर कोई गंभीर रोग आ घेरे तो चुपचाप मौत का इंतजार करने के अलावा रास्ता भी कोई नहीं होता। ऐसे देश के चुनाव में सेहत कोई मुद्दा क्यों नहीं है, ये सवाल दुख भी पैदा करता है और पड़ताल भी मांगता है।
गांव खराल के किसान भूपेंद्र सिंह ग्रेवाल से यह सवाल पूछा तो वे लोगों के सीधेपन पर भड़क उठे। बोले कि सरकार से मिलने वाली छोटी मोटी खैरातों को पाकर ही लोग खुश हो जाते हैं। अनेकों लोग बिना इलाज या ढंग का इलाज ना मिल पाने के कारण मर जाते हैं मगर गांव में आए नेताओं से कोई नहीं कहता कि हमें अस्पताल चाहिएं। गांव कसौर के तेलु राम राणा तो दो कदम और आगे निकल गए। बोले अस्पताल तो बहुत खोले हैं सरकार ने पर वहां डॉक्टर भी तो होने चाहिएं। दवाइयां भी तो होनी चाहिएं। मिलता क्या है सरकारी अस्पतालों में माला डी की गोलियां या परिवार नियोजन का कुछ और साजोसामान। कोई गंभीर रोगी आ जाए तो सरकारी अस्पताल बस अपने से बड़े अस्पताल को रेफर करने का काम करता है, और कुछ नहीं। चीका के परमानंद गोयल कहते हैं कि इलाज तो सारा का सारा मुफ्त होना चाहिए। गोयल कहते हैं कि जब से डॉक्टरी सेवा की बजाए कारोबारी धंधे में बदल गई है तब से आए दिन दवाइयां भी महंगी होती जा रही हैं और डॉक्टरों की फीस भी नए कीर्तिमान स्थापित करती जा रही है। गोयल कहते हैं कि जितना गंभीर विषय है उतनी गंभीरता से सरकार इस विषय पर काम नहीं कर रही। चीका के ही सुमित कुमार को अस्पताल अब पंचतारा होटलों जैसे नजर आते हैं। सुमित कहते हैं कि जब मकसद ही पैसा कमाना है तो किसी के जीने मरने की परवाह कौन करे।
प्रकाश को गुजरे छह महीने गुजर गए, मगर गांव अगौंध के लोगों में उसे ना बचा पाने का मलाल आज भी जिंदा है। लोगों में पूरे सरकारी तंत्र को लेकर भारी गुस्सा है। गांव के राजपाल राणा कहते हैं कि यदि प्रकाश का समय रहते इलाज हो जाता तो शायद उसकी जान बच सकती थी। घर का अकेला कमाने वाला प्रकाश बस तीस साल की उम्र में चला गया। अब उसका बूढ़ा बाप बीमारी से तड़पता चारपाई से जुड़ा है। लोकतंत्र का सबसे बड़ा खिलाड़ी 'लोकÓ बिन आई मौत से मरा जा रहा है और कोई चर्चा तक नहीं हो रही। ये कैसा लोकतंत्र है प्रभु।
खांसी जुकाम का इलाज भी है गरीब आदमी के बूते से बाहर
लोक बीमार है तो कैसे स्वस्थ होगा लोकतंत्र
----गुरविन्दर मितवा
गांव अगौन्ध के प्रकाश को गुजरे छह महीने गुजर गए। एक पलंबर के पास हेल्परी करके सौ दो सौ रुपए दिहाड़ी कमाने वाले प्रकाश को एक दिन छाती में दर्द हुआ था। चीका के एक डॉक्टर को दिखाया। कुछ चेकअप हुए तो पता चला कि प्रकाश को दिल की एक गंभीर बीमारी है। डॉक्टर ने एक बड़े अस्पताल का नाम पर्ची पर लिखकर थमा दिया और ताकीद भी कर दी कि जल्दी आप्रेशन करवा लो वरना कभी भी जान पर बन सकती है। आप्रेशन कहां से होना था जो थोड़ी बहुत पूंजी पेट काट काटकर जोड़ी थी, टेस्टों पर खर्च हो गई। काम छूट गया और बिगड़ती हालत ने चारपाई पकडऩे पर मजबूर कर दिया। खबर पाकर गांव के कुछ नौजवान आगे आए। पहले नेताओं के दरवाजे खटखटाए गए जब आश्वासनों के अलावा और कुछ ना मिला तो नौजवानों ने चंदा करना शुरू कर दिया। कुछ ही दिनों में आप्रेशन के लिए चार लाख रुपए जमा भी हो गए लेकिन तब तक बीमारी इलाज की हदों से दूर निकल गई थी। आप्रेशन हुआ लेकिन प्रकाश की जान नहीं बच पाई।
गांव मस्तगढ़ के सुलक्खन सिंह को शुगर की बीमारी थी। शुगर इतनी बढ़ी की गुर्दों को ले बैठी। पटियाला से शुरू हुआ इलाज का सिलसिला गुडग़ांव के एक बड़े निजी अस्पताल तक जा पहुंचा। बीवी का गुर्दा ट्रांसप्लांट करवाकर सुलक्खन सिंह की जान तो बच गई मगर एक साल का ये इलाज पीढिय़ों से चली आ रही दो करोड़ रुपए की जमीन को निगल गया।
हर गांव, हर शहर के हर गली मुहल्ले में इस तरह की ढेरों कहानियां बिखरी पड़ी हैं। इलाज महंगा हो गया है। इतना महंगा, कि इलाज के सामने जान कई बार सस्ती जान पड़ती है। जिन घरों में दाल रोटी ही सबसे बड़ा मसला हो, उनके लिए तो खांसी जुकाम की दवाई ही अक्सर बूते से बाहर की बात हो जाती है। और अगर कोई गंभीर रोग आ घेरे तो चुपचाप मौत का इंतजार करने के अलावा रास्ता भी कोई नहीं होता। ऐसे देश के चुनाव में सेहत कोई मुद्दा क्यों नहीं है, ये सवाल दुख भी पैदा करता है और पड़ताल भी मांगता है।
गांव खराल के किसान भूपेंद्र सिंह ग्रेवाल से यह सवाल पूछा तो वे लोगों के सीधेपन पर भड़क उठे। बोले कि सरकार से मिलने वाली छोटी मोटी खैरातों को पाकर ही लोग खुश हो जाते हैं। अनेकों लोग बिना इलाज या ढंग का इलाज ना मिल पाने के कारण मर जाते हैं मगर गांव में आए नेताओं से कोई नहीं कहता कि हमें अस्पताल चाहिएं। गांव कसौर के तेलु राम राणा तो दो कदम और आगे निकल गए। बोले अस्पताल तो बहुत खोले हैं सरकार ने पर वहां डॉक्टर भी तो होने चाहिएं। दवाइयां भी तो होनी चाहिएं। मिलता क्या है सरकारी अस्पतालों में माला डी की गोलियां या परिवार नियोजन का कुछ और साजोसामान। कोई गंभीर रोगी आ जाए तो सरकारी अस्पताल बस अपने से बड़े अस्पताल को रेफर करने का काम करता है, और कुछ नहीं। चीका के परमानंद गोयल कहते हैं कि इलाज तो सारा का सारा मुफ्त होना चाहिए। गोयल कहते हैं कि जब से डॉक्टरी सेवा की बजाए कारोबारी धंधे में बदल गई है तब से आए दिन दवाइयां भी महंगी होती जा रही हैं और डॉक्टरों की फीस भी नए कीर्तिमान स्थापित करती जा रही है। गोयल कहते हैं कि जितना गंभीर विषय है उतनी गंभीरता से सरकार इस विषय पर काम नहीं कर रही। चीका के ही सुमित कुमार को अस्पताल अब पंचतारा होटलों जैसे नजर आते हैं। सुमित कहते हैं कि जब मकसद ही पैसा कमाना है तो किसी के जीने मरने की परवाह कौन करे।
प्रकाश को गुजरे छह महीने गुजर गए, मगर गांव अगौंध के लोगों में उसे ना बचा पाने का मलाल आज भी जिंदा है। लोगों में पूरे सरकारी तंत्र को लेकर भारी गुस्सा है। गांव के राजपाल राणा कहते हैं कि यदि प्रकाश का समय रहते इलाज हो जाता तो शायद उसकी जान बच सकती थी। घर का अकेला कमाने वाला प्रकाश बस तीस साल की उम्र में चला गया। अब उसका बूढ़ा बाप बीमारी से तड़पता चारपाई से जुड़ा है। लोकतंत्र का सबसे बड़ा खिलाड़ी 'लोकÓ बिन आई मौत से मरा जा रहा है और कोई चर्चा तक नहीं हो रही। ये कैसा लोकतंत्र है प्रभु।
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