Saturday, February 14, 2015

क्या इस हत्या के गुनहगारों को सजा मिल पाएगी?


अपनी जेब गर्म करने के चक्कर में ठंडा कर दिया एक घर का चूल्हा

गुरविन्दर मितवा

नहीं...यह लापरवाही तो हरगिज नहीं थी। इसे सिर्फ लालच कह देना भी गुनाह को कम करके आंकना होगा। पिछले दिनों हुई बरसात के कारण गांव भाटियां से पंजाब के रतनहेड़ी को जाने वाली सड़क के साथ लगती बर्म की मिट्टी कई जगहों से बह गई। घग्गर की बाढ़ से प्रभावित रहने वाले इस इलाके में सड़क आसपास की जमीनों से दस-पंद्रह फीट ऊंची है। जल्दी ही बर्म पर मिट्टी डालने के लिए सरकारी लोग भी आ गए। आस पास से ही मिट्टी खोद कर बर्म की लीपापोती भी शुरू हो गई। घग्गर बांध के साथ वाली पुलिया की मिट्टी कुछ ज्यादा ही बह गई थी इसलिए जिम्मेवार सरकारी लोगों ने इस गड्ढे को पहले पराली से भरा और फिर उसके ऊपर मिट्टी की परत सी डाल दी ताकि देखने में बर्म सही सलामत लगे।
महकमे के लोगों की यही कारस्तानी शुक्रवार को एक नौजवान की मौत का कारण बन गई। गांव मरदाहेड़ी के भठ्ठे से ईंटों भरी ट्रैक्टर ट्राली लेकर गांव भाटियां की तरफ आ रहे बलजीत सिंह ने जब सामने से आ रहे एक वाहन को साईड देने के लिए अपना ट्रैक्टर उक्त पुलिया की बर्म पर उतारा तो नीचे की पराली एक दम से खिसक गई। संतुलन खोकर पहले ट्रैक्टर पलटा और साथ ही ट्राली भी पलटा खाते हुए पुलिया के नीचे जा गिरी। बलजीत सिंह ट्रैक्टर के नीचे फंस गया। जब तक लोगों ने आकर उसे बाहर निकाला उसकी मौत हो चुकी थी।
गांव सिऊं माजरा के पंच गुरनाम सिंह हांडा सवाल उठाते हैं कि क्या इसे सिर्फ हादसा कहा जाएगा। हांडा ने कहा कि जहां मिट्टी डलनी चाहिए थी वहां थोड़े से लालच के कारण पराली डाली गई। वे कहते हैं कि बेशक चंद मु_ी मिट्टी बचाकर कुछ लोगों ने अपनी जेब गर्म कर ली होगी पर पर इस चक्कर में एक गरीब घर का चूल्हा ठंडा कर दिया है। वे कहते हैं कि अगर जिम्मेवार सरकारी लोग बर्म को सही ढंग से बनाते तो एक बेशकीमती जान बच सकती थी।


शायर कुंवर कसौरिया भी दोषी लोगों के खिलाफ हत्या का मुकदमा दर्ज करने की मांग करते हुए कहते हैं कि सवाल सिर्फ लापरवाही का नहीं है। ना ही चंद रुपयों के लालच का है। यहां सवाल उस पूरी मानसिकता का है जिसके कारण हर साल पता नहीं कितने लोग तथाकथित हादसों में मौत का ग्रास बन जाते हैं। कसौरिया कहते हैं कि संबंधित अफसरशाही पर जिम्मेवारी डाले बिना ना तो यह लालच खतम हो सकते हैं तथा ना ही लालच के वश में आकर की गई लापरवाहियां।



एक गरीब परिवार का एक मात्र कमाने वाला चला गया। पांच और तीन साल के दो बच्चे अनाथ हो गए। एक औरत भरी जवानी में विधवा हो गई मगर अधिकारी हैं कि अपनी जिम्मेवारियों से पल्ला झाडऩे में जुट गए हैं। पीडब्ल्यूडी के एसडीओ से इस हादसे को लेकर सवाल किया तो उन्होंने कहा कि यह सड़क मार्केटिंग बोर्ड की है। ठीक कराने की जिम्मेवारी भी उनकी ही बनती है। मार्केटिंग बोर्ड के जेई से बात हुई तो उन्होंने कहा कि ये सड़क बोर्ड के पास आ जरूर गई है लेकिन इसकी रिपेयर की जिम्मेवारी फिलहाल पीडब्ल्यूडी की ही बनती है। तो फिर कौन करवा रहा है सड़क की मरम्मत? इस सवाल के जवाब में दोनों ही अधिकारियों ने पता नहीं कहकर अपनी अनभिज्ञता जाहिर कर दी।

Sunday, December 21, 2014

सड़क पर रेंगते वाहनों की तरह मंद मंद सरक रही है जिंदगी

सर्दी का सितम
सड़क पर रेंगते वाहनों की तरह मंद मंद सरक रही है जिंदगी
गुरविन्दर मितवा
गुहला चीका, 21 दिसंबर

सर्दियों की सुबह वैसे भी बड़ी देर से जवान होती है पर यदि धुंध भी पड़ी हो पता ही नहीं चलता कि कब दिन चढ़ा और कब ढल गया। इतवार को यही हुआ। आज भी सूर्य देवता नहीं दिखे। सड़कों पर लगभग रेंगने की सी गति में चलते वाहनों की मानिंद जिंदगी भी मंद मंद सरकती सी नजर आई। लोगों ने घड़ी की छोटी बड़ी सुइयां देखकर ही अनुमान लगाया कि दोपहर हो गई है। शाम हो गई है। रही बात रात की तो रात किन्हीं घड़ी की सुइयों का मोहताज नहीं होती। अंधेरा अपने आप रात की आमद की दस्तक दे देता है।
गुहला चीका की शामनुमा दोपहर को शहर का चक्कर लगाया तो सर्दी को लेकर अखबारों में छपी और शहरों की खबरें अपनी सी लगी। 'भयंकर सर्दी में जमी जिंदगी', 'ठिठुरन ने रोकी जीवन की रफ्तार', 'सर्दी के कारण बाजारों की रौनक गायब'-इस तरह की कितनी ही सुर्खियां एक हफ्ते से अखबारों में छाई हैं। पटियाला रोड पर जहां पटियाला समाना जाने वाले बसें खड़ी होती हैं, आग सेंक रहे लोगों से जब इस विषय पर चर्चा हुई तो शोकी लाला बोल पड़ा-तनैं कौन कैह बाजारां की रौनक गायब। जाकै देख ना बुद्धु के ठेके पै। शाम लाल की रेहड़ी पै। जर्सियां आली दकान पै।
वाकई बुद्धु के शराब के ठेके पर रश खूब था। सड़क की दूसरी ओर लगी शाम लाल की अंडो की रेहड़ी पर भी खूब भीड़ लगी थी। पास की एक दूसरी रेहड़ी पर जिंदु मछली वाला हर आने वाले ग्राहक से पूछ रहा था-केहड़ी बनावा भाई साब..मली के संघाड़ा या फेर लोकल मच्छी। गुहला रोड पर मिठाई की दुकानों पर भी पकौड़ों की खुशबुएं उठ रही थी। गिरनार स्वीटस वाले नरेश कुमार बताने लगे कि आज कल पकौड़ों का सीजन है। सर्दी में तीखा अच्छा लगता है इसलिए लोग बैंगन, गोभी व आलू के पकौड़ों के साथ साथ साबुत मिर्च वाले पकौड़ों की मांग खास तौर करते हैं।
शहर भर में सड़कों के किनारे जमीन पर तपड़ी बिछाकर मूंगफली रेवड़ी गजक बेच रहे यूपी व बिहार के फड़ी वालों की दुकानदारी भी खूब चमक रही है। शहर में रोजाना हजारों रूपए की मूंगफली व सूखे मेवे बिक रहे हैं। मुनक्के, खजूर व छुआरे तो रेहडिय़ों पर बिक रहे हैं जबकि काजू बादाम जैसे महंगे मेवे मिठाई व किराना की दुकानों पर मिलते हैं। छोटी मंडी के एक दुकानदार ने बताया कि छुआरा सस्ता भी है और सर्दी में बड़ा फायदेमंद भी होता है इसलिए सबसे ज्यादा छुआरों की सेल हो रही है। गुहला रोड की सब्जी की दुकानों पर विदेशी खजूर की खूब धूम है। महंगा है पर लोग स्वाद के चक्कर में महंगाई पर कोई ध्यान नहीं देते।
छोटी मंडी वाले बाजार का रूख किया तो किराने की ज्यादातर दुकानें बंद मिली। जो खुली थी उन पर भीड़ ना के बराबर थी। रेडीमेड गारमेंट वालों तकरीबन सभी दुकानों पर खूब लोग जुटे थे। किसी को गर्म जर्सी चाहिए। किसी को टोपी तो किसी को सर्दी में भी गर्मी के अहसास वाला थर्मोकोट।
मफलर की ज्यादा सेल नहीं
एक दुकानदार के नौकर से मंकी कैप के बारे में पूछा तो बोला कैसी मंकी कैप। जब उसे समझाया कि जैसी पुरानी भूतहा फिल्मों में लालटेन लिए चौकीदार ने पहनी होती थी। सिर से लेकर गर्दन तक की टोपी बीच में आंखों, नाक और मुंह के लिए थोड़े से खुले स्थान वाली टोपी। चर्चा सुनकर दुकान का मालिक पास आ गया और बोला कि बड़ों के साइज की तो नहीं है जी। बच्चों के साइज की पड़ी हैं। कहो तो दिखा दूं। एक दूसरी दुकान पर वैसे ही पूछ लिया कि मफलरों की कितनी कू सेल है इस बार तो दुकानदार ने बताया कि ज्यादा नहीं है। पिछले सीजन में जब केजरीवाल हिट हुए थे मफलर फैशन हो गया था। इस बार मफलर की कोई खास डिमांड नहीं है।
सोशल मीडिया पर छाई सर्दी
हुड्डा कालोनी नंबर एक की एक बेकरी शॉप पर खड़े नौजवानों से बात की तो उन्होंने बताया कि आज कल फेस बुक व व्हाट्सएप आदि पर सर्दी के ही चर्चे हैं। एक स्टेटस अपडेट देखिए 'दोस्तो आज समय है...रजाई का आविष्कार करने वाली महान आत्मा को शत शत नमन करने का। कसम से कमाल की चीज बनाई है।' एक फोटो व्हाट्सएप के गु्रपों में काफी घूम रही है जिसमें एक छोटा सा सरदार बच्चा हाथ जोड़कर आंखें बंद करके विनती करता नजर आता है। फोटो पर लिखा है कि बाबा जी...एसी थोड़ा स्लो करदो, थल्ले बच्चयां नूं बहुत ठंड लग रही ए।
एक सीरियस स्टेटस ये भी खूब शेअर हो रहा है-'आज जिन्हें टीवी पर पेशावर कांड देखकर इंसानियत याद आ रही है न, वे अपनी गली के बाहर सोते भीख मांगने वाले बच्चे को एक कंबल जरूर देकर आएं....सिर्फ आतंकवाद से ही लोग नहीं मरते।'

Thursday, November 13, 2014

दो बांके ---भगवतीचरण वर्मा


लखनऊ के सफेदा आम, लखनऊ के खरबूजे, लखनऊ की रेवड़ियां, ये सब ऐसी चीजें हैं जिन्हें लखनऊ से लौटते समय लोग सौगात के तौर पर साथ ले जाया करते हैं, लेकिन कुछ ऐसी भी चीजें हैं जो साथ नहीं ले जाई जा सकतीं और उनमें लखनऊ की जिन्दादिली और लखनऊ की नफासत विशेष रूप से आती है।
ये तो वे चीजें हैं, जिन्हें देशी और परदेशी सभी जान सकते हैं, पर कुछ ऐसी भी चीजें हैं जिन्हें कुछ लखनऊ वाले तक नहीं जानते, और अगर परदेशियों को इनका पता लग जाय, तो समझिए कि उन परदेशियों के भाग खुल गए। इन्हीं विशेष चीजों में आते हैं लखनऊ के ‘बांके’।
‘बांके’ शब्द हिन्दी का है या उर्दू का, यह विवादग्रस्त विषय हो सकता है, और हिन्दी वालों का कहना है- इन हिन्दी वालों में मैं भी हूं – कि यह शब्द संस्कृत के ‘बंकिम’ शब्द से निकला है, पर यह मानना पड़ेगा कि जहां ‘बंकिम’ शब्द में कुछ गम्भीरता है, कभी-कभी कुछ तीखापन झलकने लगता है, वहां ‘बांके’ शब्द में एक अजीब बांकापन है।
अगर जवान बांका-तिरछा न हुआ, तो आप निश्चय समझ लें कि उसकी जवानी की कोई सार्थकता नहीं। अगर चितवन बांकी नहीं, तो आंख का फोड़ लेना अच्छा है, बांकी अदा और बांकी झांकी के बिना जिन्दगी सूनी हो जाए।
मेरे खयाल से अगर दुनिया से बांका शब्द उठ जाए, तो कुछ दिलचले लोग खुदकुशी करने पर आमादा हो जाएंगे। और इसीलिए मैं तो यहां तक कहूंगा कि लखनऊ बांका शहर है, और इस बांके शहर में कुछ बांके रहते हैं, जिनमें गजब का बांकपन है। यहां पर आप लोग शायद झल्ला कर यह पूछेंगे-मियां यह ‘बांके’ हैं क्या बला? कहते क्यों नहीं? और मैं उत्तर दूंगा कि आप में सब्र नहीं, अगर इन बांकों की एक बांकी भूमिका नहीं हुई, तो फिर कहानी किस तरह बांकी हो सकती है?
हां, तो लखनऊ शहर में रईस हैं। तवायफें हैं और इन दोनों के साथ शोहदे भी हैं। बकौल लखनऊ वालों के, ‘ये शोहदे’ ऐसे-वैसे नहीं है। ये लखनऊ की नाक हैं। लखनऊ की सारी बहादुरी के ये ठेकेदार हैं और ये जान ले लेने तथा जान दे देने पर आमादा रहते हैं। अगर लखनऊ से ये शोहदे हटा दिए जाएं, तो लोगों का यह कहना ‘अजी लखनऊ, तो जनानों का शहर है’ सोलह आने सच्चा उतर जाए।”
जनाब, इन्हीं शोहदों के सरगनों को लखनऊ वाले ‘बांके’ कहते हैं। शाम के वक्त तहमत पहने हुए और कसरती बदन पर जालीदार बनियान पहनकर उसके ऊपर बूटेदार चिकन का कुरता डांटे हुए जब ये निकलते हैं, तब लोग-बाग बड़ी हसरत की निगाहों से उन्हें देखते हैं।
उस वक्त इनके पट्टेदार बालों में करीब आधा-पाव चमेली का तेल पड़ा रहता है, कान में इत्र की अनगिनत फरहरियां खुंसी रहती हैं और एक बेले का गजरा गले में तथा एक हाथ की कलाई पर रहता है। फिर ये अकेले भी नहीं निकलते, इनके साथ शागिर्द शोहदों का जुलूस रहता है, एक-से-एक बोलियां बोलते हुए, फबतियां कसते हुए और हांकते हुए। उन्हें देखने के लिए एक हजूम उमड़ पड़ता है।
तो उस दिन मुझे अमीनाबाद से नख्खास जाना था। पास में पैसे थे, इसलिए जब एक नवाब ने आवाज दी, ‘नख्खास’ तो मैं उचककर उनके इक्के पर बैठ गया। यहां यह बतला देना बेजा न होगा कि लखनऊ के इक्के वालों में तीन-चौथाई शाही खानदान के हैं, और यही उनकी बदकिस्मती है कि उनका वसीका (राजकीय सहायता) बंद या कम कर दिया गया और उन्हें इक्का हांकना पड़ रहा है।
इक्का नख्खास की तरफ चला और मैंने मियां इक्के वाले से कहा, ”कहिए नवाब साहब! खाने-पीने भर को तो पैदा कर लेते हैं?”
इस सवाल का पूछा जाना था कि नवाब साहब के उद्गारों के बांध का टूट पड़ना था। बड़े करूण स्वर में बोले, ”क्या बतलाऊं हुजूर, अपनी क्या हालत है, कह नहीं सकता! खुदा जो कुछ दिखलाएगा, देखूंगा। एक वो दिन थे जब हम लोगों के बुजुर्ग हुकूमत करते थे! ऐशोआराम की जिन्दगी बसर करते थे, लेकिन आज हमें-उन्हीं की औलादों को-भूखों मरने की नौबत आ गई। और हुजूर, अब पेशे में कुछ रह नहीं गया।
पहले तो तांगे चले, जी को समझाया-बुझाया, मियां अपनी-अपनी किस्मत! मैं भी तांगा ले लूंगा, यह तो वक्त की बात है, मुझे भी फायदा होगा, लेकिन क्या बतलाऊं हुजूर, हालत दिनो-दिन बिगड़ती ही गई। अब देखिए, मोटरों पर मोटरें चल रही हैं। भला बतलाइए हुजूर, जो सुख इक्के की सवारी में है, वह भला तांगे या मोटर में कहां मिलने का? तांगे में पलथी मारकर आराम से बैठ नहीं सकते। जाते उत्तर की तरपफ हैं, मुंह दक्खिन की तरफ रहता है।
अजी साहब, हिन्दुओं में मुरदा उलटे सिर ले जाया जाता है, लेकिन तांगे में लोग जिन्दा ही उलटे सिर चलते हैं। और जरा गौर फरमाइये! ये मोटर शैतान की तरह चलती हैं, जहां जाती है, वह बला की धूल उड़ाती है कि इन्सान अन्धा हो जाए। मैं तो कहता हूं कि बिना जानवर के आप चलने वाली सवारी से दूर ही रहना चाहिए, उसमें शैतान का फेर है।”
इक्के वाले नवाब और न जाने क्या-क्या कहते, अगर वे ‘या अली!’ के नारे से चौंक न उठते। सामने क्या देखते हैं कि आलम उमड़ा पड़ रहा है। इक्का रकाबगंज के पुल के पास पहुंचकर रूक गया।
एक अजीब समां था। रकाबगंज के पुल के दोनों तरफ करीब पन्द्रह हजार की भीड़ थी, लेकिन पुल पर एक आदमी नहीं। पुल के एक किनारे करीब पचीस शोहदे लाठी लिए हुए खड़े थे, और दूसरे किनारे भी उतने ही। एक खास बात और थी कि पुल के एक सिरे पर सड़क के बीचो-बीच एक चारपाई रखी थी, और दूसरे सिरे पर भी सड़क के बीचो-बीच दूसरी। बीच-बीच में रूक-रूक कर दोनों ओर से ‘या अली!’ के नारे लगते थे।
मैंने इक्के वाले से पूछा, ”क्यों मियां, क्या मामला है?”
मियां इक्के वाले ने एक तमाशाई से पूछकर बतलाया, ”हुजूर, आज दो बांकों में लड़ाई होने वाली है, उसी लड़ाई को देखने के लिए यह भीड़ इकट्ठी है।”
मैंने फिर पूछा, ”यह क्यों?”
मियां इक्के वाले ने जवाब दिया, ”हुजूर पुल के इस पार के शोहदों का सरगना एक बांका है और उस पार के शोहदों का सरगना दूसरा बांका। कल इस पार के एक शोहदे से पुल के उस पार के दूसरे शोहदे का कुछ झगड़ा हो गया और उस झगड़े में कुछ मार-पीट हो गई। इस फसाद पर दोनों बांकों में कुछ कहासुनी हुई और उस कहासुनी में ही मैदान बद दिया गया।”
चुप होकर मैं उधर देखने लगा। एकाएक मैंने पूछा, ”लेकिन ये चारपाइयां क्यों आई हैं?”
”अरे हुजूर! इन बांकों की लड़ाई कोई ऐसी-वैसी थोड़ी ही होगी, इसमें खून बहेगा और लड़ाई तब तक खत्म न होगी, जब तक एक बांका खत्म न हो जाए। आज तो एक-आध लाश गिरेगी। ये चारपाइयां उन बांकों की लाश उठाने आई हैं। दोनों बांके अपने बीवी-बच्चों से रूखसत लेकर और कर्बला के लिए तैयार होकर आवेंगे।”
इसी समय दोनों और से ‘या अली!’ की एक बहुत बुलन्द आवाज उठी। मैंने देखा कि पुल के दोनों तरफ हाथ में लाठी लिए हुए दोनों बांके आ गए। तमाशाइयों में एक सकता-सा छा गया, सब लोग चुप हो गए।
पुल के उस पार वाले बांके ने कड़क कर दूसरे पार वाले बांके से कहा, ”उस्ताद!” और दूसरे पार वाले बांके ने कड़क कर उत्तर दिया, ”उस्ताद!”
पुल के इस पार वाले बांके ने कहा, ”उस्ताद, आज खून हो जाएगा, खून!”
पुल के उस पार वाले ने कहा, ”उस्ताद, आज लाशें गिर जाएंगी, लाशें!”
पुल के इस पार वाले बांके ने कहा, ”उस्ताद, आज कहर हो जाएगा, कहर!”
पुल के उस पार वाले बांके ने कहा, ”उस्ताद, आज कयामत बरपा हो जाएगी, कयामत!”
चारों और एक गहरा सन्नाटा फैला था। लोगों के दिल धड़क रहे थे, भीड़ बढ़ती ही जा रही थी।
पुल के इस पार वाले बांके ने लाठी का एक हाथ घुमाकर एक कदम बढ़ते हुए कहा, ”तो फिर उस्ताद होशियार!”
पुल के इस पार वाले बांके ने भी लाठी का एक हाथ घुमाकर एक कदम बढ़ाते हुए कहा, ”तो फिर उस्ताद संभलना!”
पुल के उस पार वाले बांके के शागिर्दों ने गगन-भेदी स्वर में नारा लगाया, ”या अली!”
दोनों तरफ से दोनों बांके, कदम-ब-कदम लाठी के हाथ दिखलाते हुए तथा एक दूसरे को ललकारते आगे बढ़ रहे थे, दानों तरफ के बांकों के शागिर्द हर कदम पर ‘या अली!’ के नारे लगा रहे थे, और दोनों तरफ के तमाशाइयों के हृदय उत्सुकता, कौतूहल तथा इन बांकों की वीरता के प्रदर्शन के कारण धड़क रहे थे।
पुल के बीचो-बीच, एक-दूसरे से दो कदम की दूरी पर दोनों बांके रूके। दोनों ने एक-दूसरे को थोड़ी देर गौर से देखा। फिर दोनों बांकों की लाठियां उठीं, और दाहिने हाथ से बाएं हाथ में चली गईं।
इस पार वाले बांके ने कहा, ”फिर उस्ताद!”
उस पार वाले बांके ने कहा, ”फिर उस्ताद!”
इस पार वाले बांके ने अपना हाथ बढ़ाया, और उस पार वाले बांके ने अपना हाथ बढ़ाया। और दोनों के पंजे गुंथ गए।
दोनों बांकों के शागिर्दों ने नारा लगाया, ‘या अली!’ फिर क्या था। दोनों बांके जोर लगा रहे हैं, पंजा टस से मस नहीं हो रहा है। दस मिनट तक तमाशबीन सकते की हालत में खड़े रहे।
इतने में इस पार वाले बांके ने कहा, ”उस्ताद, गजब के कस हैं!”
उस पार वाले बांके ने कहा, ”उस्ताद, बला का जोर है!”
इस पार वाले बांके ने कहा, ”उस्ताद, अभी तक मैंने समझा था कि मेरे मुकाबिले का लखनऊ में कोई दूसरा नहीं है।”
उस पार वाले बांके ने कहा, ”उस्ताद, आज कहीं जाकर मुझे अपनी जोड़ का जवां मर्द मिला।”
इस पार वाले बांके ने कहा, ”उस्ताद, तबीयत नहीं होती कि तुम्हारे जैसे बहादुर आदमी का खून करूं।”
उस पार वाले बांके ने कहा, ”उस्ताद, तबीयत नहीं होती कि तुम्हारे जैसे शेर-दिल आदमी की लाश गिराऊं।”
थोड़ी देर के लिए दोनों मौन हो गए! पंजा गुंथा हुआ, टस से मस नहीं हो रहा है।
इस पार वाले बांके ने कहा, ”उस्ताद, झगड़ा किस बात है?”
उस पार वाले बांके ने कहा, ”उस्ताद, यही सवाल मेरे सामने है!”
इस पार वाले बांके ने कहा, ”उस्ताद, पुल के इस तरफ के हिस्से का मालिक मैं।”
उस पार वाले बांके ने कहा, ”उस्ताद पुल के इस तरफ के हिस्से का मालिक मैं।”
और दोनों ने एक साथ कहा, ”पुल की दूसरी तरफ से न हमें कोई मतलब है और न हमारे शागिर्दों को!”
दोनों के हाथ ढीले पड़े, दोनों ने एक-दूसरे को सलाम किया और फिर दोनों घूम पड़े। छाती फुलाए हुए दोनों बांके अपने शागिर्दों से आ मिले। बिजली की तरह यह खबर फैल गई कि दोनों बांके बराबर की जोड़ छूटे और उनमें सुलह हो गई।
इक्के वाले को पैसे देकर मैं वहां से पैदल ही लौट पड़ा, क्योंकि देर हो जाने के कारण नख्खास जाना बेकार था।
इस पार वाला बांका अपने शागिर्दों से घिरा हुआ चल रहा था। शागिर्द कह रहे थे, ”उस्ताद इस वक्त बड़ी समझदारी से काम लिया, वरना आज लाशें गिर जातीं। उस्ताद हम सब के सब अपनी-अपनी जान दे देते। लेकिन उस्ताद, गजब के कस हैं!”
इतने में किसी ने बांके से कहा, ”मुला स्वांग खूब भरयो।”
बांके ने देखा कि एक लम्बा और तगड़ा देहाती, जिसके हाथ में एक भारी-सा लट्ठ है, सामने खड़ा मुस्करा रहा है।
उस वक्त बांके खून का घूंट पीकर रह गए। उन्होंने सोचा-एक बांका दूसरे बांके से ही लड़ सकता है, देहातियों से उलझना उसे शोभा नहीं देता। और शागिर्द भी खून का घूंट पीकर रह गए। उन्होंने सोचा-भला उस्ताद की मौजूदगी में उन्हें हाथ उठाने का कोई हक भी है?

खोल दो --- सआदत हसन मन्टो

अमृतसर से स्पेशल ट्रेन दोपहर दो बजे चली और आठ घंटों के बाद मुगलपुरा पहुंची। रास्ते में कई आदमी मारे गए। अनेक जख्मी हुए और कुछ इधर-उधर भटक गए।
सुबह दस बजे कैंप की ठंडी जमीन पर जब सिराजुद्दीन ने आंखें खोलीं और अपने चारों तरफ मर्दों, औरतों और बच्चों का एक उमड़ता समुद्र देखा तो उसकी सोचने-समझने की शक्तियां और भी बूढ़ी हो गईं। वह देर तक गंदले आसमान को टकटकी बांधे देखता रहा। यूं ते कैंप में शोर मचा हुआ था, लेकिन बूढ़े सिराजुद्दीन के कान तो जैसे बंद थे। उसे कुछ सुनाई नहीं देता था। कोई उसे देखता तो यह ख्याल करता की वह किसी गहरी नींद में गर्क है, मगर ऐसा नहीं था। उसके होशो-हवास गायब थे। उसका सारा अस्तित्व शून्य में लटका हुआ था।
गंदले आसमान की तरफ बगैर किसी इरादे के देखते-देखते सिराजुद्दीन की निगाहें सूरज से टकराईं। तेज रोशनी उसके अस्तित्व की रग-रग में उतर गई और वह जाग उठा। ऊपर-तले उसके दिमाग में कई तस्वीरें दौड़ गईं-लूट, आग, भागम-भाग, स्टेशन, गोलियां, रात और सकीना…सिराजुद्दीन एकदम उठ खड़ा हुआ और पागलों की तरह उसने चारों तरफ फैले हुए इनसानों के समुद्र को खंगालना शुरु कर दिया।
पूरे तीन घंटे बाद वह ‘सकीना-सकीना’ पुकारता कैंप की खाक छानता रहा, मगर उसे अपनी जवान इकलौती बेटी का कोई पता न मिला। चारों तरफ एक धांधली-सी मची थी। कोई अपना बच्चा ढूंढ रहा था, कोई मां, कोई बीबी और कोई बेटी। सिराजुद्दीन थक-हारकर एक तरफ बैठ गया और मस्तिष्क पर जोर देकर सोचने लगा कि सकीना उससे कब और कहां अलग हुई, लेकिन सोचते-सोचते उसका दिमाग सकीना की मां की लाश पर जम जाता, जिसकी सारी अंतड़ियां बाहर निकली हुईं थीं। उससे आगे वह और कुछ न सोच सका।
सकीना की मां मर चुकी थी। उसने सिराजुद्दीन की आंखों के सामने दम तोड़ा था, लेकिन सकीना कहां थी , जिसके विषय में मां ने मरते हुए कहा था, “मुझे छोड़ दो और सकीना को लेकर जल्दी से यहां से भाग जाओ।”
सकीना उसके साथ ही थी। दोनों नंगे पांव भाग रहे थे। सकीना का दुप्पटा गिर पड़ा था। उसे उठाने के लिए उसने रुकना चाहा था। सकीना ने चिल्लाकर कहा था “अब्बाजी छोड़िए!” लेकिन उसने दुप्पटा उठा लिया था।….यह सोचते-सोचते उसने अपने कोट की उभरी हुई जेब का तरफ देखा और उसमें हाथ डालकर एक कपड़ा निकाला, सकीना का वही दुप्पटा था, लेकिन सकीना कहां थी?
सिराजुद्दीन ने अपने थके हुए दिमाग पर बहुत जोर दिया, मगर वह किसी नतीजे पर न पहुंच सका। क्या वह सकीना को अपने साथ स्टेशन तक ले आया था?- क्या वह उसके साथ ही गाड़ी में सवार थी?- रास्ते में जब गाड़ी रोकी गई थी और बलवाई अंदर घुस आए थे तो क्या वह बेहोश हो गया था, जो वे सकीना को उठा कर ले गए?
सिराजुद्दीन के दिमाग में सवाल ही सवाल थे, जवाब कोई भी नहीं था। उसको हमदर्दी की जरूरत थी, लेकिन चारों तरफ जितने भी इनसान फंसे हुए थे, सबको हमदर्दी की जरूरत थी। सिराजुद्दीन ने रोना चाहा, मगर आंखों ने उसकी मदद न की। आंसू न जाने कहां गायब हो गए थे।
छह रोज बाद जब होश-व-हवास किसी कदर दुरुसत हुए तो सिराजुद्दीन उन लोगों से मिला जो उसकी मदद करने को तैयार थे। आठ नौजवान थे, जिनके पास लाठियां थीं, बंदूकें थीं। सिराजुद्दीन ने उनको लाख-लाख दुआऐं दीं और सकीना का हुलिया बताया, गोरा रंग है और बहुत खूबसूरत है… मुझ पर नहीं अपनी मां पर थी…उम्र सत्रह वर्ष के करीब है।…आंखें बड़ी-बड़ी…बाल स्याह, दाहिने गाल पर मोटा सा तिल…मेरी इकलौती लड़की है। ढूंढ लाओ, खुदा तुम्हारा भला करेगा।
रजाकार नौजवानों ने बड़े जज्बे के साथ बूढे¸ सिराजुद्दीन को यकीन दिलाया कि अगर उसकी बेटी जिंदा हुई तो चंद ही दिनों में उसके पास होगी।
आठों नौजवानों ने कोशिश की। जान हथेली पर रखकर वे अमृतसर गए। कई मर्दों और कई बच्चों को निकाल-निकालकर उन्होंने सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाया। दस रोज गुजर गए, मगर उन्हें सकीना न मिली।
एक रोज इसी सेवा के लिए लारी पर अमृतसर जा रहे थे कि छहररा के पास सड़क पर उन्हें एक लड़की दिखाई दी। लारी की आवाज सुनकर वह बिदकी और भागना शुरू कर दिया। रजाकारों ने मोटर रोकी और सबके-सब उसके पीछे भागे। एक खेत में उन्होंने लड़की को पकड़ लिया। देखा, तो बहुत खूबसूरत थी। दाहिने गाल पर मोटा तिल था। एक लड़के ने उससे कहा, घबराओ नहीं-क्या तुम्हारा नाम सकीना है?
लड़की का रंग और भी जर्द हो गया। उसने कोई जवाब नहीं दिया, लेकिन जब तमाम लड़कों ने उसे दम-दिलासा दिया तो उसकी दहशत दूर हुई और उसने मान लिया कि वो सराजुद्दीन की बेटी सकीना है।
आठ रजाकार नौजवानों ने हर तरह से सकीना की दिलजोई की। उसे खाना खिलाया, दूध पिलाया और लारी में बैठा दिया। एक ने अपना कोट उतारकर उसे दे दिया, क्योंकि दुपट्टा न होने के कारण वह बहुत उलझन महसूस कर रही थी और बार-बार बांहों से अपने सीने को ढकने की कोशिश में लगी हुई थी।
कई दिन गुजर गए- सिराजुद्दीन को सकीना की कोई खबर न मिली। वह दिन-भर विभिन्न कैंपों और दफ्तरों के चक्कर काटता रहता, लेकिन कहीं भी उसकी बेटी का पता न चला। रात को वह बहुत देर तक उन रजाकार नौजवानों की कामयाबी के लिए दुआएं मांगता रहता, जिन्होंने उसे यकीन दिलाया था कि अगर सकीना जिंदा हुई तो चंद दिनों में ही उसे ढूंढ निकालेंगे।
एक रोज सिराजुद्दीन ने कैंप में उन नौजवान रजाकारों को देखा। लारी में बैठे थे। सिराजुद्दीन भागा-भागा उनके पास गया। लारी चलने ही वाली थी कि उसने पूछा-बेटा, मेरी सकीना का पता चला?
सबने एक जवाब होकर कहा, चल जाएगा, चल जाएगा। और लारी चला दी। सिराजुद्दीन ने एक बार फिर उन नौजवानों की कामयाबी की दुआ मांगी और उसका जी किसी कदर हलका हो गया।
शाम को करीब कैंप में जहां सिराजुद्दीन बैठा था, उसके पास ही कुछ गड़बड़-सी हुई। चार आदमी कुछ उठाकर ला रहे थे। उसने मालूम किया तो पता चला कि एक लड़की रेलवे लाइन के पास बेहोश पड़ी थी। लोग उसे उठाकर लाए हैं। सिराजुद्दीन उनके पीछे हो लिया। लोगों ने लड़की को अस्पताल वालों के सुपुर्द किया और चले गए।
कुछ देर वह ऐसे ही अस्पताल के बाहर गड़े हुए लकड़ी के खंबे के साथ लगकर खड़ा रहा। फिर आहिस्ता-आहिस्ता अंदर चला गया। कमरे में कोई नहीं था। एक स्ट्रेचर था, जिस पर एक लाश पड़ी थी। सिराजुद्दीन छोटे-छोटे कदम उठाता उसकी तरफ बढ़ा। कमरे में अचानक रोशनी हुई। सिराजुद्दीन ने लाश के जर्द चेहरे पर चमकता हुआ तिल देखा और चिल्लाया-सकीना
डॉक्टर, जिसने कमरे में रोशनी की थी, ने सिराजुद्दीन से पूछा, क्या है?
सिराजुद्दीन के हलक से सिर्फ इस कदर निकल सका, जी मैं…जी मैं…इसका बाप हूं।
डॉक्टर ने स्ट्रेचर पर पड़ी हुई लाश की नब्ज टटोली और सिराजुद्दीन से कहा, खिड़की खोल दो।
सकीना के मुर्दा जिस्म में जुंबिश हुई। बेजान हाथों से उसने इज़ारबंद खोला और सलवार नीचे सरका दी। बूढ़ा सिराजुद्दीन खुशी से चिल्लाया, जिंदा है-मेरी बेटी जिंदा है?
---- सआदत हसन मन्टो

Saturday, November 8, 2014

हमारी बस्ती को अवैध मत बोलिए साहब।

जहां जिंदा लोग बसते हैं वो घर अवैध नहीं हुआ करते
वैध कालोनी में घर ले नहीं सकते, अवैध में कोई रहने नहीं देता
-गुरविन्दर मितवा

'हमारी बस्ती को अवैध मत बोलिए साहब। यहां भी जिंदा लोग बसते हैं। बेशक गरीब हैं पर अपने हक हलाल की कमाई खाते हैं।' बुजुर्ग  नराता राम बोलने लगता है तो जैसे छिड़ र्ही पड़ता है। ' हम नशे के कारोबारी नहीं हैं बाऊ जी। अफीम भुक्की दारू ड्रग्स हम नहीं बेचते। चोरी चकारी हम नहीं करते। डाका नहीं मारते, लूट नहीं करते। रिक्शा चलाते हैं, दिहाड़ी करते हैं, दुकानों पर छोटी मोटी नौकरियां करते हैं और अपने परिवार का पेट पालते हैं...फिर भी जो आता है कह देता है कि बस्ती अवैध है तुम्हारी।'-नराता राम का चेहरा गुस्से से लाल हो जाता है।
सरकारी हिसाब से 'अवैध' मानी जाने वाली  मियां बस्ती सहित कुछ अन्य कालोनियों में जाकर लोगों का हाल जानने की कोशिश की तो वास्ता गुस्से और आक्रोश से पड़ा। इन कालोनियों की गलियां कच्ची हैं। सीवरेज तो दूर की बात, नालियां तक नहीं हैं। जगह जगह पानी खड़ा है। पानी पर मच्छरों के झुरमुट मंडराते हैं। इधर उधर जिधर खाली जगह नजर आती है, वहीं गंदगी के ढेर लगे पड़े हैं। लोग बताते हैं कि जिस भी महकमे में चले जाओ, अधिकारी यह कहकर टरका देते हैं कि आपकी कालोनी में कोई काम नहीं हो सकता, क्योंकि आपकी कालोनी अवैध है।
मियां बस्ती का पाला राम सवाल उठाता है कि अगर हमारी कालोनी अवैध है तो वोटें क्यों बनाई हैं हमारी। कोई भी चुनाव हो, नेता लोग आते हैं। लुभावने वादे करते हैं और वोटों की फसल काटकर चलते बनते हैं। बाद में कोई सुनवाई करने नहीं आता।
बाबा बस्ती का जसमेर बताता है कि उनकी कालोनी बसे तीस साल से ज्यादा वक्त हो गया, नगर पालिका उसे तो आज भी अवैध बताती है पर बाबा बस्ती के साथ सटे एक मुहल्ले को कालोनाइजरों ने अभी हाल ही में बसाया है, पालिका रिकार्ड में वह एप्रूवड एरिया करार दे दिया गया है। नगर पालिका ने दोनों के बीच में एक लंबी सारी दीवार खींचकर जैसे अमीरी और गरीबी के बीच एक दीवार खड़ी कर दी है। इसी बस्ती का संदीप कहता है कि बाबा बस्ती में चूंकि गरीब लोग बसते हैं इसलिए यह सवाल उठाने की शायद किसी में हिम्मत नहीं है कि आखिर आपने किस आधार पर बिल्कुल साथ साथ सटे दो मुहल्लों को वैध और अवैध करार दे दिया।
बेगा बस्ती का लीलू राम कहता है कि अगर हमारी कालोनी अवैध है तो कोई बात नहीं सरकार दिला दे ना हमें भी हूडा में प्लाट। हम तो वहां जाकर रह लेंगे। रेट पता है ना क्या है वहां पर। 25 से 30 हजार का एक गज। हूडा ना सही वकील कालोनी में दिला दो। वहां भी 20 हजार का गज है। और तो और हाऊसिंग बोर्ड कालोनी में भी कोई हाथ नहीं रखने देता। लीलू कहता है कि गरीबों को भी तो सिर ढकने के लिए जगह चाहिए कि नहीं। छोटी कालोनियों में 17 सौ से 35 सौ गज तक में आराम से जमीन मिल जाती है। बढिय़ा जगह खरीदने की औकात होती तो बिना कोई सुख सुविधा वाली कालोनी में क्यों धक्के खाते फिरते। हमें तो घर चाहिए। वैध में घर लेने की हमारी हैसियत नहीं, अवैध में आप हमें रहने नहीं देते तो बताइये कि जाएं तो कहां जाएं।
क्या हम नहीं हैं हकदार
बेगा बस्ती का कर्मचंद कहता है कि गांवों में तो सरकार ने गरीबों व दलितों को 100-100 गज के प्लाट काटकर दे दिए। क्या शहरी गरीब इस तरह की सुविधाओं के हकदार नहीं हैं। अवैध कही जाने वाली कालोनियों में ज्यादातर दलित परिवार बसें हैं। कर्मचंद कहते हैं कि सरकार गांवों में दलितों को मुफ्त जमीन दे सकती है हमें शहरी दलितों को अपने मुहल्लों में कम से कम उतनी सुविधाएं तो दे दे जितनी अन्य मुहल्लों में दी जा रही हैं।

Sunday, November 2, 2014

''...त्योंति मोदी अंतल ने तहा है''

''...त्योंति मोदी अंतल ने तहा है'' 
--गुरविन्दर मितवा

चीका की हाऊसिंग बोर्ड कालोनी का मित्तल मास्टर जी की तरफ वाला छोटा सा पार्क। इतवार का दिन है और समय सुबह के लगभग साढ़े नौं का है। दस-बारह छोटे छोटे बच्चे पार्क की सफाई में लगे हैं। नन्हीं नन्हीं उंगलियां क्यारियों में गिरे पत्तों, पोलीथीन के लिफाफों व टाफियों वगैरह के रैपरों को बीनने में लगी हैं। छोटी छोटी मुट्ठियाँ कचरे को संभालती हैं और पार्क के एक कोने में बने छोटे से ढेर पर उलट देती हैं। दो छोटी बच्चियों के पास अपने कद से भी बड़े बड़े झाड़ू हैं। पार्क के घास के ऊपर पूरा जोर लगाकर झाड़ू फेरने की कोशिश कर रही हैं। क्या साफ हो रहा है शायद वे नहीं जानती। पास जाकर पूछा कि क्या कर रहे हो। बच्चों का सामूहिक स्वर निकला-पार्क की सफाई।
फिर पूछा कि वो तो ठीक है पर क्यों कर रहे हो?
त्योंति मोदी अंतल ने तहा है।-उनके लीडर से लग रहे एक बच्चे ने आगे बढ़कर जवाब दिया।
चौथी क्लास में पढऩे वाले इस बच्चे ने अपना नाम अभिषेत बताया।
मोदी कौन हैं पता है आपको?
हां जी अंतल पता है अपने प्राइम मिनीस्तर हैं। बातें सुनकर बाकी बच्चे भी काम छोड़कर अभिषेक के ही साथ आ खड़े हुए। तीसरी क्लास के अर्णव ने बताया कि स्कूल में उनकी मैम ने कहा था कि अपनी गली मुहल्ले में सफाई करनी है। दूसरी क्लास की दृष्टि ने बातचीत के बीच में कूदते हुए कहा कि हमारी टीचर ने भी यही बोला था पर साथ ही यह भी कहा था कि ग्रुप बनाके सफाई करनी है।
पांचवीं क्लास के अभिनव ने बताया कल भी और कुछ दिन पहले भी उनके स्कूल ने शहर में सफाई के लिए एक रैली निकाली थी। छाती फुलाकर अभिनव ने कहा कि मैं भी मास्क पहनकर इस रैली में गया था और चौंक के पास झाड़ू भी लगाया था। पांचवीं क्लास की इशा बोली-अंकल हम भी गए थे रैली में। मैम ने कहा है कि ना तो कहीं गंदगी फैलानी है और ना ही किसी को गंदगी फैलाने देनी है। तभी एलकेजी में पढऩे वाली आरना रोते रोते आई और बच्चों की टोली में खड़े अपने भाई अर्णव की बांह झिंझोडऩे लगी-भइया-भईया...युग मेरा झाड़ू नी दे रा। तकरीबन अढ़ाई फीट की आरना की तरफ देखकर पहले तो हंसी छूटी फिर उससे सवाल किया कि बेटा क्या करोगे झाड़ू का।
मैंने भी तो सफाई करनी है अंकल। हमारी मैम ने भी कहा था कि संडे को सफाई करनी है। तीसरी क्लास के रिदम और अरमान ने बताया कि उनकी टीचर ने कहा है कि केला खाओ तो छिलका डस्टबिन में डालना है। मूंगफली खाओ तो छिलके पहले एक लिफाफे में इकट्ठे कर लो फिर उसे ले जाकर डस्टबिन में डाल दो।
काफी देर सवालों का दौर चलता रहा तो बच्चों के नेता अभिषेत यानि अभिषेक को पता नहीं एकाएक क्या ख्याल आया और उसने पूछ लिया-अच्छा अंतल आप तो बता दो आप ये त्यों पूछ रे हो?
तुम्हारी अखबार में खबर छापूंगा।
इतना सुनते ही बच्चों ने ''हुर्रे'' का सम्वेत स्वर निकाला और फिर पार्क की सफाई में मशगूल हो गए।




Friday, August 29, 2014

'...गांव में अब गांव नजर नहीं आता

'...गांव में अब गांव नजर नहीं आता
ना पहले सा भाइचारा रहा, ना तहजीब, ना दरियादिली
आढ़तियों और बैंकों के यहां गिरवी पड़ी है तथाकथित खुशहाली
साधनों की चकाचौंध नहीं, सादगी भरा गांव चाहते हैं गांव वाले
प्रधानमंत्री के कथन कि देश बनाना है तो गांव बनाना होगा पर गांव वालों ने रखी राय

गुरविन्दर मितवा

गांव में भोर अब मुर्गे की बांग से नहीं होती। ना ही अब सुबह सवेरे हाथों से दूध बिलोने वाली मधानियों की घूं-घूं का मीठा संगीत सुनाई देता है। बैलों के गले में बंधी घंटियों की खनकार भी अब गांव की सुबह का हिस्सा नहीं हैं। पुराने लोगों के साथ पुराना दौर भी चला गया। शायर कंवर कसौरिया अपनी निराशा का इजहार करते हैं कि गांव में अब गांव नजर नहीं आता। खेती के आधुनिक साजोसामान के साथ साथ टीवी, फ्रिज, मोबाइल, मोटर साइकिल, कारें, एसी सब आ गए, लेकिन गांव की सुख शांति खतम हो गई है। सारी खुशहाली आढ़तियों और बैंकों के यहां गिरवी पड़ी है। गांव की पहचान कही जाने जाने वाली पगडंडियां, गलियां, चौपालें, हुक्के, सांग, जमातें, तमाशे, कुएं, बावडिय़ां, मेले, सादगी, साफगोई, तहजीब, शराफत, बहादुरी, दरियादिली, भाईचारा, कद्रें, कीमतें, शर्म, लिहाज सब जाने कहां गुम हो गए हैं।
बात दरअसल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 15 अगस्त के भाषण को लेकर चली थी। लाल किले की फसील से अपने पहले भाषण में प्रधानमंत्री ने कहा था कि देश बनाना है तो गांव बनाना होगा। कैसा गांव बनाना चाहते हैं मोदी, ये तो उन्होंने नहीं बताया लेकिन गांव वाले कैसा गांव बनता देखना चाहते हैं, इस सवाल का जवाब टटोलने के लिए खरकां रोड के गांवों का रूख किया तो पहली मुलाकात गांव कसौर में कंवर कसौरिया से हो गई। वे कहते हैं कि बहुत कुछ छिन गया तरक्की के नाम पर। ऐसी तरक्की और नहीं चाहिए। हरियाणा का पुराना गांव आत्म निर्भर होता था। तरक्की ने उसे कर्जदार बना दिया है। कंवर जज्बाती होने लगते हैं। वे अपनी एक नज्म की कुछ लाइनें सुनाते हैं कि आज फिर निकल पड़ा है मेरा गांव, नंगे पांव, ढूंढने पगडंडियां, शायद मिल जाएं कहीं, सड़कें तो अब चुभने सी लगी हैं।
गांव मस्तगढ़ के बुजुर्ग लखविंद्र सिंह को भी पुराने दिनों का बड़ा मलाल है। वे कहते हैं कि नए दौर ने सिर्फ गांव के आदमी को ही नहीं बदला, हवा पानी पर भी असर छोड़ा है। यहां वहां खड़े ढाक के पेड़ों पर मुहावरे के फिर वही तीन पात तो दिखते हैं पर उन पर लगने वाले टेसू के फूल बरसों से नहीं देखे। कैर के एक दो पेड़ बचे हैं सड़क के किनारे, किंतु अब उस पर लाल मीठे पिंजू नहीं लगते। जाअल के पेड़ पर अब पील नहीं लगती। रामचना, चिब्बड़ और बंबोले कभी खूब खाए जाने वाले लाजवाब फल हुआ करते थे, आज की पीढ़ी को नहीं मालूम। लखविंद्र सिंह कहते हैं कि तरक्की की चाहत में फसलों में हर साल टनों के हिसाब से गिरने वाले कीटनाशकों ने कुदरती सिस्टम का बेड़ा गर्क करके रख दिया है। कैमरी, कैंदू, सिरस, फ्रांस, संभालू और मरोड़ सहित सैकड़ों भांति के पेड़ पौधे गुहला के इलाके से तो लगभग लुप्त हो गए हैं।
गांव नंदगढ़ के प्रकृति प्रेमी किसान कश्मीर सिंह को तरक्की तो अच्छी लगती है पर इसके लिए जो रास्ता चुना गया है वह उन्हें बुरा लगता है। वे कहते हैं कि हरित क्रांति के बाद तेज रफ्तार से खेतों में पडऩे शुरू हुए कीटनाशकों व खादों से उपज तो बेशक बढ़ी, लेकिन इसकी ऐवज में सैकड़ों तरह के जीव, जंतु, कीट, पतंगे व पक्षी खतम हो गए।
खेतों में कुदरती तौर पर जुताई करने वाले केंचुएं अब नहीं बचे हैं। बच्चों को बहलाने वाला छोटा सा जीव 'फेल पासÓ दो तीन दशकों से नहीं देखा। राम का घोड़ा, तीज, पोथ, भंभीरी, कोतरी, घोघड़, गिद्ध, चील, गो, सपसीण, सेह, मुरगाबी, बत्तख, घेरा आदि सब तरक्की ने लील लिए। कश्मीर सिंह कहते हैं कि गांव को साधनों संसाधनों की चकाचौंध वाला गांव नहीं चाहिए। मोदी दे सकें तो 30 साल पहले वाला गांव दे दें। खेती व जीने की तमाम तरह की सुविधाएं तो हों पर कुदरत का साथ भी साथ हो।